Satire: 'आया सासबहू का जमाना...' मगर यह बताइए कब नहीं था? अरे, इन का जमाना तो पहले भी था अब भी है और इन का ही रहेगा. हां, पर अब  और पहले में फर्क है. तब सास तख्ते पर विराजमान बहू पर हुक्म चलाती थीं और बहू सहमी सी उन के कहे अनुसार करती थी.

पर हम पुरुष... हम तो तब भी बस तमाशबीन थे, नारी विवश नर जो हैं. तो बस हमें तो दृष्टा ही बने रहना है क्योंकि इन के तरकश में शब्दभेदी बाणों का अंबार है, वह भी कई तरह के- नुकीले, कटीले, हठिले, तीखे और भी न जाने कितने. हमें तो नाम भी पता नहीं.

हां, पर इतना पता है कि इन का असर एकदूजे पर असर करे न करे, पर मारे जाते हैं हम लाचार पुरुष.

सदियों से सह रहे हैं यह वार पर तब से ज्यादा अब क्योंकि सास अपना रुतबा झाड़ना चाहे तो बहू करारे जवाब के साथ हाजिर है, जिस का परिणाम- महाभारत.

फिर हमें टीवी पर चलती रोमांटिक फिल्म बंद कर इन के महाभारत का एपिसोड देखना पड़ता है और मजाल है जो टीवी की तरह रिमोट से इन के एपिसोड का अंत कर दें.  ऐसा रिमोट बना भी नहीं है, साहब और यह गलती की तो सारे शब्दभेदी बाण हमें घायल करेंगे जो अलग, साथ ही हमारे खाने की छुट्टी.

बस, फिर लाचार पुरुष की भांति दृष्टा बने इंतजार करते हैं एपिसोड के अंत का. अंत होने पर सोचते हैं कि अब कहीं भोजनपानी का प्रबंध हो जाएं. पर नहीं, कुछ नहीं होता है जी. दोनों अपनेअपने कमरे में औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ी होती हैं.

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