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‘ इतनी मुश्किल से तो जिंदगी में यह खुशी आई है… इसे भी पूरे दिल से महसूस नहीं कर पा रही हूं. बहारें तो जैसे कह कर गई हैं मेरे दर से कि हम कभी नहीं लौटेंगी यहां. हां कभी थीं मेरी जिंदगी में भी बहारें… सगी बहनों सी… अच्छी सहेलियों सी,’ एक लंबी गहरी ठंडी सांस ले कर रिनी ने सोचा और

पलंग की पीठ से सिर टिका कर मौजूदा हालात से नजरें चुरा कर पलकों का परदा गिरा दिया और आहिस्ताआहिस्ता लौट चली उन बेफिक्र दिनों की ओर जब लमहालमहा जिंदगी गुनगुनाती थी. हंसीखुशी, मुसकराहटें, फूल, कलियां, चांदसितारे, धूप, दिलकश हवाएं उस के कदमों के संग कदम मिला कर चलती थीं.

वह और उस से 8 साल बड़ी रचना दीदी अम्मू व पापा की बेहद लाडली थीं. बेटा न होने का अफसोस अम्मू व पापा को कभी नहीं हुआ. वे दोनों ही जान छिड़कते थे अपनी राजदुलारियों पर और रचना दी तो उसे अपनी गुडि़या सम झती थीं. रचना दी के ब्याह के बाद उदासी तो छाई घर भर में पर रिनी तो जैसे राजकुमारी से रानीमहारानी बन गई. चिंता की परिभाषा उसे नहीं पता थी. अभावों से उस का परिचय नहीं था और परेशानियों, गमों से जानपहचान नहीं थी उस की. वक्त आने पर बांकासजीला और उन से भी ज्यादा समृद्ध घराने का रंजन उसे चाव के साथ ब्याह कर ले गया.

2 शादीशुदा बहनों की इकलौती भाभी थी वह. बहनें तो रिसैप्शन के अगले दिन ही चली गईं. अब रह गए घर में कुल जमा 4 प्राणी वह, रंजन और मम्मीडैडी. बुलबुल सी चहकती

फिरती थी रिनी घरआंगन में. देखदेख रंजन निहाल होते और सासससुर मुग्ध, पर यह चाव चार दिन की चांदनी ही साबित हुआ. चहकती रिनी की गरदन पर वक्त ने पंजा कसना शुरू कर दिया. 6 महीने के बाद ही घर में बच्चे की मांग उठने लगी.

मम्मी की चेतावनियां, ‘‘वारिस तो हमें चाहिए ही रिनी रानी, कान खोल कर सुन लो. कुछ इस्तेमाल कर रही हो तो फौरन बंद कर दो.’’

डैडीजी भी कहां पीछे रहने वाले थे, ‘‘अरे, पार्क में भाईबंधू पोतेपोतियों को घुमानेखिलाने लाते हैं तो जलन होती है. जब कोई पूछता है कि ‘‘आप कब दादा बनने वाले हैं सुभाषजी, बहू की क्या खुशखबरी है? अब तो साल से ऊपर हो चला ब्याह को, तो बड़ी शर्म आती है.’’

एक रंजन ही थे जो कुछ न कहते थे और उस की पीठ पर तसल्ली भरा हाथ रख देते थे. तब वह चैन की सांस लेती थी. लेकिन 4 महीने और आगे खिसकी ब्याह की उम्र तो वे भी उन्हीं की टीम में शामिल हो गए. मां से जाने क्या सीखपढ़ कर कमरे में आते और उस की ओर पीठ कर के लेट जाते.

रिनी मनुहार करती तो भड़क उठते, ‘‘क्या फायदा, बंजर खेत में हल चलाने का? अरे, एक वारिस भी न दे पाई इस घर को तो काहे की पत्नी, कैसी औरत?’’

रिनी ने रंजन के इस रूप की तो कभी कल्पना भी नहीं की थी.

घर भर का प्यार कपूर की गंध की तरह उड़ गया था और मम्मी न जाने किनकिन तरकशों से विष बु झे तीर निकालनिकाल कर अचूक निशाना साध कर चलातीं, जिन से रिनी का कलेजा लहूलुहान हो उठता था.

ये ताने कभीकभी तो अति पार कर जाते, ‘‘अरे, कालो महरी के घर हर बरस 1 बच्चा होता है और हमारी तारा धोबन को ही देख लो… 4 सालों में 3 बालक उस के आंगन में आ गए… एक हमारी ही देहरी सूनी है.’’

रिनी के ब्याह की उम्र 3 साल हो गई और यातनाओं की असीम. बातबात पर हाथ भी उठाने लगे थे रंजन. सास ने कभी हाथ तो नहीं उठाया, लेकिन उन के कड़वे कटाक्ष मार से भी ज्यादा घातक होते थे. कभी कोई गलती से भी पूछ लेता कि बहू की खुशखबरी कब सुना रही हो तो वे माथे पर हाथ मार कर कहतीं, ‘‘अब तो इस घर से गम की खबरें ही बाहर आएंगी कि गायत्री बिन पोते का मुंह देखे ही मर गई.’’

सिर  झुकाए, आंखें नम किए रिनी इस तरह सुनती जैसे वह जानबू झ कर औलाद न पैदा करने का गुनाह कर रही हो.

एक बार घर के पिछवाड़े बड़े अमरूद के पेड़ के पीछे बिल्ली ने बच्चे दिए तो आफत रिनी पर टूट पड़ी, ‘‘कुत्तेबिल्लियां तक इस घर में आआ कर बच्चे जन रहे हैं, एक हमारी रिनी है जो खापी कर डकार तक नहीं ले रही.’’

रंजन ने भी विरोध करने के बजाय मसालेदार छौंक लगाई, ‘‘अरे, मम्मी, कुत्ता, बिल्ली, गाय, कबूतर, चिडि़या, सांप सब के परिवार बढ़ रहे हैं, एक हम हैं…’’

सब कुछ अकेली सहती रही रिनी. कैसे सह सकी? अब याद करती है तो हैरानी होती है उसे खुद पर. अम्मू व पापा तक कभी उस ने अपने दुखों की आंच को नहीं पहुंचने दिया. नागफनी के इस कंटीले जंगल में महकते फूलों के एक ही पेड़ का साया था उस के पास… पड़ोस वाली स्वनाम धन्य शीतल चाची, जो उसे बच्चों की तरह दुलारती थीं. उस के अदृश्य घावों पर पड़ी उन की एक नेहदृष्टि जैसे मरहम का काम करती थी. उन्होंने ही एक दिन उस की व्यथाकथा को जस का तस उस के मायके पहुंचा दिया.

पापा फौरन आ गए और उन्होंने आसान हल सु झाया, ‘‘दोनों की डाक्टरी जांच करवा लो. पता चल जाएगा कि खामी किस में है.’’

उन के यह कहने भर की देर थी कि जैसे बम फट गया, ‘‘आप की हिम्मत कैसे हुई. हमारे हट्टेकट्टे बेटे पर तोहमत लगाने की? ले जाइए अपनी बेटी को और जैसी चाहे जांच कराइए. हमारे बेटे का पीछा छोडि़ए.’’

जिस घर को वह अपना मान कर बरसों से रह रही थी, उसी से पल भर में खदेड़ दी गई वह और वह भड़कती आग तलाक के तट पर पहुंच कर ही शांत हुई.

पापा ने ही कहा, ‘‘उन्होंने शुरू कर दी है तलाक की बात तो मैं उन की फितरत

अच्छी तरह जानता हूं कि वे तलाक ले कर ही मानेंगे. अदालत में तो लड़की की मानमर्यादा ही मिट्टी में मिला दी जाती है, इसलिए आपसी सम झदारी से ही बात खत्म हो जाए तो बेहतर.’’

बड़े विकट थे वे दिन. उन की यादें तक दर्द से लिपटी हैं, तो दिन कितने यातनादायी होंगे, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. अब तो बाबुल का घर भी अपना नहीं लगता था रिनी को. वहां रहने, खानेपीने में भी संकोच होता था उसे… उसी घर में जहां वह जन्मीपली थी. अम्मू व पापा उसे पलकों पर बैठा कर रखते थे, लेकिन मन नहीं रमता था उस का यहां. वह नौकरी करना चाहती थी पर पापा ने कड़े शब्दों में विरोध किया, ‘‘इतना तो है पास हमारे बिटिया कि जिंदगी भर तुम्हें आराम से खिलापिला सकते हैं. तुम नौकरी नहीं करोगी.’’

लेकिन उस का तर्क था, ‘‘मैं अपने खाली समय को कैसे भरूंगी पापा? यों निठल्ली बैठी रही तो सोचसोच कर एक दिन पागल हो जाऊंगी.’’

अम्मू ने भी उस की बात का समर्थन किया तो पापा मान गए और पास के ही एक कौन्वेंट स्कूल में उस ने नौकरी शुरू कर दी. शुरू में उसे एलकेजी और अपर केजी क्लासेज मिलीं. पहले थोड़ी सी परेशानी हुई, फिर धीरेधीरे मजा आने लगा. बच्चों में मन बहलने लगा और वह खुश रहने लगी. जिंदगी सहज ढर्रे पर चल निकली.

शुचि और रुचि फूलों सी खूबसूरत पर कुछ मुर झाई हुईं, सुबह की शबनम सी निर्मल पर उदास सी मासूम जुड़वां बहनें उस की एलकेजी क्लास में थीं, जो पढ़ने में तो ठीकठाक थीं पर हर वक्त सहमीसहमी, डरीडरी सी रहती थीं. उन की उस चुप्पी और उदासी की जड़ तक पहुंची रिनी तो स्तब्ध रह गई यह जान कर कि वे बिन मां की बच्चियां हैं और उन के पापा एक आया की सहायता से उन्हें अकेले पाल रहे हैं. आंखें ही नहीं मन भी भीग उठा था उस का.

वह अब शुचिरुचि का खास खयाल रखने लगी. बाल मनोविज्ञान का सहारा ले कर मन जीत लिया रिनी ने उन का. अब वे सामान्य होने लगीं और खुश भी रहने लगीं. अगली पीटीएम में उन के पापा आए तो मुसकराहट के साथ थैंक्स का कार्ड भी थमा गए.

बच्चियां इतना घुलमिल गई थीं रिनी से कि कभीकभी उस के साथ घर भी चली आतीं और शाम तक वहीं रहतीं और पापा के आने के वक्त का अंदाजा लगा कर घर लौट जातीं. कभी रिनी उन्हें छोड़ आती तो कभी आया आ कर ले जाती. रिनी को अचानक जिंदगी ने एक नए मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया.

शुचिरुचि की बूआ यानी उन के पापा की बड़ी बहन श्वेता अपने छोटे भाई शेखर का रिश्ता ले कर बिन खबर किए उन के घर पहुंच गई. अम्मू व पापा हैरान थे और खुश भी, फिर भी अम्मू ने साफ बात की, ‘‘आप जानती ही कितना हैं रिनी के बारे में बिटिया? वह तलाकशुदा है, कुंआरी नहीं.’’

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